Friday, 8 February 2013

डर के साये

माँ, किसी से न कह सकती हूँ
कुछ ऐसे दर्द जो सहती हूँ....

जब घर से निकलती हूँ
सड़क पर चलती हूँ
कुछ नजरें डरा सी जाती हैं
मानो खा ही जाती हैं

कभी कोई इस तरह से छू जाता है 
कि सब मैला सा हो जाता है
फिर मुझे कुछ भी अच्छा नहीं लगता,
किसी से बतियाने का मन नहीं करता

दिन की डरावनी परछायी रात पे छा जाती है
सपनों के भय से नींद नहीं आती है

जिंदगी की रफ्तार को रोकने का मन करता है
माँ तेरे आँचल में छुप जाने का मन करता है

-मृदुल

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